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प्राकृत भाषा के शास्त्रीय भाषा होने के मायने -डॉ सुनील जैन संचय, ललितपुर

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 3 अक्टूबर, 2024 को मराठी, पाली, प्राकृत, असमिया, और बंगाली को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने की मंज़ूरी दी है। इससे पहले, तमिल, मलयालम, संस्कृत, तेलुगु, कन्नड़, और ओडिया को भी शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिला था। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 3 अक्टूबर, 2024 को मराठी, पाली, प्राकृत, असमिया, और बंगाली को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने की मंज़ूरी दी है। इससे पहले, तमिल, मलयालम, संस्कृत, तेलुगु, कन्नड़, और ओडिया को भी शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिला था। शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिलने से रोज़गार के मौके बढ़ते हैं और प्राचीन ग्रंथों का संरक्षण, दस्तावेज़ीकरण, और डिजिटलीकरण होता है।

वर्ष 2004 में, भारत सरकार ने  प्राचीन विरासत को स्वीकार करने और संरक्षित करने के लिये भाषाओं को “शास्त्रीय भाषा” के रूप में नामित करना शुरू किया।

भारत की 11 शास्त्रीय भाषाएँ देश के समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास की संरक्षक हैं तथा अपने समुदायों के लिये महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक और सांस्कृतिक उपलब्धि का प्रतीक हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने  एक्स पोस्ट में लिखा, “पाली और प्राकृत भारत की संस्कृति के मूल हैं. ये आध्यात्मिकता, ज्ञान और दर्शन की भाषाएं हैं. वे अपनी साहित्यिक परंपराओं के लिए भी जानी जाती हैं. शास्त्रीय भाषाओं के रूप में उनकी मान्यता भारतीय विचार, संस्कृति और इतिहास पर उनके कालातीत प्रभाव का सम्मान करती हैं. मुझे विश्वास है कि उन्हें शास्त्रीय भाषाओं के रूप में मान्यता देने के कैबिनेट के फैसले के बाद, अधिक लोग उनके बारे में जानने के लिए प्रेरित होंगे.”

प्राकृत भाषा को शास्त्रीय भाषा घोषणा से जैन समाज, प्राकृत प्रेमियों और प्राकृत सेवियों ने सरकार के इस निर्णय का अभिनंदन किया है। जैन समाज और प्राकृत प्रेमी लंबे समय से प्राकृत को शास्त्रीय भाषा की मान्यता की मांग कर रहे थे। प्राकृत में शास्त्रीय भाषा की सारी विशेषताएँ पूरी तरह से विद्यमान हैं। जैन समाज में प्राकृत भाषा का शिक्षण और प्राकृत साहित्य का स्वाध्याय आम बात है, इससे जैन धर्म के विपुल साहित्यिक विरासत की सुरक्षा सुनिश्चित होगी क्यूँकि प्राकृत भाषा जैन संस्कृति की आधार स्तंभ है, प्राकृत भाषा जैनधर्म-दर्शन और आगम की मूल भाषा है।  भारतीय भाषाओं की जननी है प्राकृत भाषा, क्यूँकि प्राकृत का इतिहास सर्वाधिक प्राचीन रहा है।

सभी भाषाओं की जननी जनभाषा प्राकृत

महाकवि वाक्पतिराज (आठवीं शताब्दी) ने प्राकृत भाषा को जनभाषा माना है और इससे ही समस्त भाषाओं का विकास स्वीकार किया है। गउडवहो(गाथा ९३) में वाक्पतिराज ने कहा भी है –

*सयलाओ इमं वाआ विसन्ति एक्तो य णेंति वायाओ।*

*एन्ति समुद्दं चिय णेंति सायराओ च्चिय जलाईं।।*

अर्थात् ‘सभी भाषाएं इसी प्राकृत से निकलती हैं और इसी को प्राप्त होती हैं। जैसे सभी नदियों का जल समुद्र में ही प्रवेश करता है और उससे ही (वाष्प रूप में) बाहर निकगलकर नदियों के रूप में परिणत हो जाता है।

प्राकृत भाषा भारत की अति प्राचीन भाषा है। यह जनभाषा के रूप में लोकप्रिय रही है। जनभाषा अथवा लोकभाषा ही प्राकृत भाषा है । लाखों की संख्या में प्राकृत भाषा की गाथाएं आज भी भारतीय संस्कृति को अपने में संजोए हुए हैं। विशेष रूप से जैन आचार्यों ने प्राकृत भाषा में हजारों ग्रंथ लिखे।सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक रहस्यों को प्राकृत भाषा में संजोया गया है।

इस लोक भाषा ‘प्राकृत’ का समृद्ध साहित्य रहा है, जिसके अध्ययन के बिना भारतीय समाज एवं संस्कृति का अध्ययन अपूर्ण रहता है। प्राकृत में विविध साहित्य है। भगवान महावीर ने भी इसी प्राकृतभाषा के अर्धमागधी रूप में अपना उपदेश दिया था । यह शिलालेखों की भी भाषा रही है। प्राकृत जनभाषा के रूप में इतनी प्रतिष्ठित थी कि सम्राट अशोक के समय एक विशाल साम्राज्य की राजभाषा होने का गौरव होने प्राकृत भाषा को प्राप्त हुआ और उसकी प्रतिष्ठा हजारों वर्षों तक आगे बढ़ती रही। ईसा पूर्व 300 से लेकर 400 ईस्वी तक लगभग दो हजार अभिलेख प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं। यह साम्रगी केवल प्राकृत भाषा के ही विकास क्रम एवं महत्त्व के लिए उपयोगी नहीं है, अपितु भारतीय संस्कृति और इतिहास के लिए भी एक बहुमूल्य महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। हाथीगुफा शिलालेख, नासिक शिलालेख, अशोक के शिलालेख प्राकृत भाषा में ही हैं । साहित्य, संस्कृति और भारतीय भाषाओं के विकास में  प्राकृत भाषा ने महत्वपूर्ण योगदान दिया।

प्राकृत वाङ्गमय विश्व का समृद्धतम साहित्य माना जा सकता है, क्योंकि इसमें मानवीय जीवन के प्रायः सभी आयामों को स्थान मिला है। यह वाङ्गमय वर्ग, जाति, संघर्ष आदि से अछूता रहकर उन उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों की पुन: स्थापना करता है, जिनकी आवश्यकता आज प्रायः हर व्यक्ति के लिये है।

शास्त्रीय भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त होने के बाद प्राचीन साहित्यिक धरोहर आदि का डिजिटलीकरण और संरक्षण किया जाता है. इससे आने वाली पीढ़ियाँ उस धरोहर को समझ और सराह सकती हैं.

शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिलने से उस भाषा और उसकी सांस्कृतिक विरासत के प्रति समाज में जागरूकता और सम्मान दोनों बढ़ता है, साथ ही उस भाषा के दीर्घकालिक संरक्षण और विकास को भी गति मिलती है।

प्राकृत भाषा को केंद्र सरकार द्वारा शास्त्रीय भाषा घोषित करना महत्वपूर्ण कदम है। हमारी जिम्मेदारी अब और अधिक बढ़ गयी है कि अब सरकार से हम प्राकृत भाषा के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए क्या और कैसे लाभ ले सकते हैं।

 देशभर में प्राकृत भाषा के अध्ययन केंद्र, शोध संस्थान, सेमिनार इत्यादि आरम्भ किए  जाएं।प्राकृत भाषा को जैनों की जन भाषा बनानी होगी। जैसे आज भी सिन्धी, उर्दू भाषा का उपयोग किया जाता है। हमें हमारे पाठशालाओं, संस्थानों में भी प्राकृत का बेसिक अध्ययन आरम्भ करना होगा।

 सामाजिक, धार्मिक कार्यक्रमों के कार्ड इत्यादि में भी हमें प्राकृत भाषा के कोट्स का प्रयोग करना चाहिए।हमें ब्राम्ही लिपि पर भी विशेष जोर देना चाहिए। पाठशाला आदि का पंजीकरण प्राकृत पाठशाला के रूप में कराएं। प्राकृत भाषा की सूक्तियों का सार्वजनिक उपयोग किया जाय। स्कूली पाठ्यक्रम में प्राकृत की गाथाएं रखवाने के प्रयास हों। सोसल मीडिया पर भी प्राकृत भाषा का खूब प्रचार-प्रसार हो। स्कूलों , कॉलेजों में प्राकृत भाषा के सेमिनार, प्रतियोगिताएं आदि आयोजित करें। शिविर आदि प्राकृत भाषा के लगाएं जाय। इंटरनेट पर प्राकृत भाषा की भरपूर सामग्री उपलब्ध कराई जाय। प्राकृत भाषा संवर्द्धन पुरस्कार दिए जाय।

और भी अनेक कार्य हो सकते हैं।

सरकार ने अपना काम कर दिया, अब हमारी बड़ी जिम्मेदारी है कि प्राकृत भाषा के उन्नयन, विकास और संरक्षण के लिए हम क्या कर सकते हैं। अब हम सब पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ गयी है अपनी ऐतिहासिक विरासत को अक्षुण्ण बनाए रखने की ।

स्रोत- जैन गजट, 12 दिसंबर, 2024 पर:- https://jaingazette.com/prakrit-bhasha-k-shatriye-bhasha/

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