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जीव जगत को दे रहे समता का ज्ञान, काशी में तीर्थंकर चंद्रप्रभु और पार्श्वनाथ भगवान

इस बार 26 दिसंबर 2024 को भगवान चंद्र प्रभु और भगवान पार्श्वनाथ का जन्म, तप कल्याणक दिवस

सर्वधर्म सदभाव की नगरी है काशी। विभिन्न धर्मों के धार्मिक सरोकार से जुड़ी इस पावन नगरी की इन दिनों चर्चा चहुंओर है।

इस बार 26 दिसंबर 2024 को भगवान चंद्र प्रभु और भगवान पार्श्वनाथ का जन्म, तप कल्याणक दिवस

सर्वधर्म सदभाव की नगरी है काशी। विभिन्न धर्मों के धार्मिक सरोकार से जुड़ी इस पावन नगरी की इन दिनों चर्चा चहुंओर है। देश के प्रधानमंत्री ने काशी विश्वनाथ करिडोर सहित अनेक सौगातें काशी को दी हैं। बनारस को लोग मंदिरों का शहर, भारत की धार्मिक राजधानी, भगवान शिव की नगरी, दीपों का शहर आदि विशेषण भी देते हैं। प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते हैं कि “बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किंवदंतियों से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।”गंगा का पावन जल और शांत आनंदमयी घाटों का अनुभव कितना मनमोहक होता है शायद आप लोग जानते होगे, बनारस के कुछ अलग ही रहस्य हैं जो हर शहर से भिन्न है।

बनारस का हर शाम इतना सुहाना लगे।

इसे भुलाने में कई सदियाँ कई जमाना लगे।

काशी यानि वाराणसी एक धार्मिक -सांस्कृतिक नगरी एवं पवित्र नगरी मानी जाती है क्योंकि इस नगरी में सभी सम्प्रदायों की आस्था जुड़ी है जिसमें जैन धर्मावलंबियों की आस्था भी जुड़ी है क्योंकि पवित्र गंगा नदी के बीच वसी नगरी काशी में चार तीर्थंकरों का जन्म हुआ, जन्म की ही नहीं चार- चार कल्याणक भी हुए हैं। सप्तम तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ, अष्टम तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभ, ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांशनाथ और तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ ने जन्म लेकर वाराणसी नगरी को पवित्र बनाया है।  पवित्र गंगा किनारे सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ भगवान की जन्मभूमि से सुशोभित जैन घाट और  सुप्रसिद्ध स्याद्वाद महाविद्यालय हैं। ऐतिहासिक अवलोकन से स्पष्ट होता है कि जैन धर्म का प्रभाव भी इस नगरी पर रहा है।

पौष मास कृष्ण पक्ष की एकादशी को काशी बनारस में जन्मे भगवान श्री पार्श्वनाथ ओर भगवान श्री चंद्र प्रभु का जन्म, तप कल्याणक इस बार 26 दिसंबर 2024 को मनाई जा रही हैं।

पहिले भगवान श्री पार्श्वनाथ के बारे में समझते हैं

भगवान पार्श्वनाथ का जन्म, अरिष्टनेमि (भगवान श्रीकृष्ण के चचेरे भाई भगवान नेमीनाथ) के एक हजार वर्ष बाद इक्ष्वांकु वंश में पौष माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को विशाखा नक्षत्र में काशी (वाराणसी) में हुआ था।

 भगवान पार्श्वनाथ को तीर्थंकर बनने के लिए नौ जन्म लेने पड़े थे। पूर्व जन्म के पुण्य कर्म करने और तमाम तप-त्याग के पश्चात 10वें जन्म में वह तीर्थंकर बने।जैन पुराणों में उल्लेखित है कि भगवान पार्श्वनाथ पहले जन्म में मरुभूमि नामक ब्राह्मण बने, दूसरे जन्म में वज्रघोष नामक हाथी, तीसरे जन्म में स्वर्ग के देवता, चौथे जन्म में राजा रश्मिवेग, पांचवें जन्म में देव, छठे जन्म में चक्रवर्ती सम्राट वज्रनाभि, सातवें जन्म में देवता, आठवें जन्म में राजा आनंद, नौवें जन्म में देवराज इंद्र बनें।इसके पश्चात दसवें जन्म में तीर्थंकर पार्श्वनाथ भगवान के रूप में जन्म लिया था। माना जाता है कि भगवान पार्श्वनाथ के जन्म से पूर्व माँ वामा देवी ने गर्भकाल के दौरान स्वप्न में एक सर्प देखा था, इसलिए कहा जाता है कि इसी कारण पार्श्वनाथ का जन्म होने के बाद उनके शरीर पर सर्प के चिह्न अंकित थे। गौरतलब है कि भगवान पार्श्वनाथ 30 वर्ष की आयु में एक दिन राजसभा में ‘ऋषभदेव चरित’ सुनकर वैराग्य हो गया, और घर-संसार त्याग कर संन्यासी बन गये थे। 83 दिनों के तप करके कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात 70 वर्षों तक पार्श्वनाथ भगवान ने लोगों को चातुर्याम यानि सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह की शिक्षा दी और अपने मत एवं विचारों का प्रचार-प्रसार किया। कहते हैं कि भगवान पार्श्वनाथ ने पौष माह कृष्ण पक्ष की एकादशी को काशी में दीक्षा प्राप्त करने के पश्चात खीर खाकर व्रत का पारण किया था। 84 दिन तक कठोर तपस्या के बाद चैत्र मास कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को काशी स्थित ‘घातकी वृक्ष’ के नीचे ‘कैवल्य ज्ञान’ को प्राप्त किया। भगवान पार्श्वनाथ का निर्वाण श्री सम्मेद शिखरजी पर्वत पर हुआ था। पार्श्वनाथ ने अहिंसा का दर्शन दिया। अहिंसा सबके जीने का अधिकार है, उन्होंने इसे प्रमाणित भी किया था।

‘संयम’ और ‘सहनशीलता’ के प्रतिमूर्ति जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म काशी में पौष कृष्णा एकादशी को हुआ था । तत्कालीन काशी नरेश महाराजा विश्वसेन आपके पिता एवं महारानी वामादेवी आपकी माता थीं। शहर के भेलुपुर इलाके में तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की जन्मभूमि है। यही वो जगह है जहाँ जैन धर्म के 23 वें तीर्थांकर की जन्म , कर्म और तप भूमि है। जो आज जैन धर्मावलम्बियों के लिए बड़ा स्थल है। यहां आज जैन धर्म के 23 वें तीर्थंकर का भव्य मंदिर है।

पार्श्वनाथ के जन्म स्थल भेलूपुर मुहल्ले में विशाल, कलात्मक एवं मनोरम मन्दिर का निर्माण हुआ है। मन्दिर में काले पत्थरों से निर्मित चार फिट ऊंची पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है। 6273 वर्ग फिट क्षेत्रफल में यह मन्दिर परिसर है। राजस्थानी कारीगरों द्वारा राजस्थानी पत्थरों से निर्मित राजस्थानी शैली का यह मन्दिर अदभुत एवं अद्वितीय है। मन्दिर के दिवारों पर शिल्पकारों द्वारा सुन्दर ढंग से कलात्मक चित्रों को दर्शाया गया है।

इस मंदिर में दर्शन के लिए हर रोज ढेरों श्रद्धालु आते हैं। पार्श्वनाथ ने अज्ञान, आडंबर, अंधकार और क्रिया क्रम के मध्य में क्रांति का बीज बनकर जन्म लिया था।

उन्होंने हमारे भीतर सुलभ बोधि जगाई, व्रत की संस्कृति विकसित की। बुराइयों का परिष्कार कर अच्छा इंसान बनने का संस्कार भरा। पुरुषार्थ से भाग्य बदलने का सूत्र दिया। भगवान पार्श्वनाथ क्षमा के प्रतीक और सामाजिक क्रांति के प्रणेता हैं। उन्होंने अहिंसा की व्याप्ति को व्यक्ति तक विस्तृत कर सामाजिक जीवन में प्रवेश दिया, जो अभूतपूर्व क्रांति थी। उनका कहना था कि हर व्यक्ति के प्रति सहज करुणा और कल्याण की भावना रखें। उनके सिद्धांत व्यावहारिक थे, इसलिए उनके व्यक्तित्व और उपदेशों का प्रभाव जनमानस पर पड़ा। आज भी बंगाल, बिहार, झाारखंड और उड़ीसा में फैले हुए लाखों सराकों, बंगाल के मेदिनीपुर जिले के सदगोवा ओर उडीसा के रंगिया जाति के लोग पार्श्वनाथ को अपना कुल देवता मानते हैं। पार्श्वनाथ के सिद्धांत और संस्कार इनके जीवन में गहरी जड़ें जमा चुके हैं। इसके अलावा सम्मेदशिखर के निकट रहने वाली भील जाति पार्श्वनाथ की अनन्य भक्त है।

भगवान पार्श्वनाथ की जीवन-घटनाओं में हमें राज्य और व्यक्ति, समाज और व्यक्ति तथा व्यक्ति और व्यक्ति के बीच के संबंधों के निर्धारण के रचनात्मक सूत्र भी मिलते हैं। इन सूत्रों की प्रासंगिकता आज भी यथापूर्व है। हिंसा और अहिंसा का द्वन्द भी हमें इन घटनाओं में अभिगुम्फित दिखाई देता है। ध्यान से देखने पर भगवान पार्श्वनाथ तथा भगवान महावीर का समवेत् रूप एक सार्वभौम धर्म के प्रवर्तन का सुदृढ़ सरंजाम है।

तीर्थंकर पार्श्वनाथ तथा उनके लोकव्यापी चिंतन ने लम्बे समय तक धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र को प्रभावित किया। उनका धर्म व्यवहार की दृष्टि से सहज था, जिसमें जीवन शैली का प्रतिपादन था। राजकुमार अवस्था में कमठ द्वारा काशी के गंगाघाट पर पंचाग्नि तप तथा यज्ञाग्नि की लकड़ी में जलते नाग-नागिनी का णमोकार मंत्र द्वार उद्धार कार्य की प्रसिद्ध घटना यह सब उनके द्वारा धार्मिक क्षेत्रों में हिंसा और अज्ञान विरोध और अहिंसा तथा विवेक की स्थापना का प्रतीक है।

तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने मालव, अवंती, गौर्जर, महाराष्ट्, सौराष्ट्, अंग-नल, कलिंग, कर्नाटक, कोंकण, मेवाड़, द्रविड, कश्मीर, मगध, कच्छ, विदर्भ, पंचाल, पल्लव आदि आर्यखंड के देशों में विहार किया। उनकी ध्यानयोग की साधना वास्तव में आत्मसाधना थी। भय, प्रलोभन, राग-द्वेष से परे। उनका कहना था कि सताने वाले के प्रति भी सहज करूणा और कल्याण की भावना रखें।

तीर्थंकर पार्श्वनाथ की भारतवर्ष में सर्वाधिक प्रतिमाएं और मंदिर हैं। उनके जन्म स्थान भेलूपुर वाराणसी में बहुत ही भव्य और विशाल दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन मंदिर बना हुआ है। यह स्थान विदेशी पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केन्द्र है। पार्श्वनाथ की जयंती पर जहां वाराणसी सहित पूरे देश में जन्मोत्सव धूमधाम से श्रीजी की शोभायात्रा के साथ मनाया जाता है।

चौबीस तीर्थंकरों में भगवान पार्श्वनाथ लोकजीवन में सर्वाधिक प्रतिष्ठित हैं। इस आर्यखंड-भारतदेश के प्रत्येक राज्य में भगवान पार्श्वनाथ विभिन्न विशेषणों के साथ पूजे जाते हैं। कहीें वे ‘‘अंतरिक्ष पार्श्वनाथ’’ के रूप में प्रतिष्ठित हैं तो कहीं देवालय ‘‘चिन्तामणि पार्श्वनाथ’’ की जय से गुंजित होता है, कहीं वे ‘‘तिखाल वाले बाबा’’, “गोपाचल वाले बाबा” के रूप में विराजमान हैं।

तीर्थंकर पार्श्वनाथ की भक्ति में अनेक स्तोत्र का आचार्यों ने सृजन किया है, जैसे- श्रीपुर पाश्र्वनाथ स्तोत्र, कल्याण मंदिर स्तोत्र, इन्द्रनंदि कृत पार्श्वनाथ स्तोत्र, राजसेनकृत पाश्र्वनाथाष्टक, पद्मप्रभमलधारीदेव कृत पाश्र्वनाथ स्तोत्र, विद्यानंदिकृत पाश्र्वनाथ स्तोत्र आदि। स्तोत्र रचना आराध्यदेव के प्रति बहुमान प्रदर्शन एवं आराध्य के अतिशय का प्रतिफल है। अतः इन स्तोत्रों की बहुलता भगवान पार्श्वनाथ के अतिशय प्रभावकता का सूचक है। भारतीय संस्कृति की प्रमुख धारा श्रमण परम्परा में भगवान पार्श्वनाथ का ऐतिहासिक एवं गौरवशाली महत्व रहा है। भगवान पार्श्वनाथ हमारी अविच्छिन्न तीर्थंकर परम्परा के दिव्य आभावान योगी ऐतिहासिक पुरूष हैं। सर्वप्रथम डाॅ. हर्मन याकोबी ने ‘स्टडीज इन जैनिज्म’ के माध्यम से उन्हें ऐतिहासिक पुरूष माना।

वर्तमान वैज्ञानिक युग में भी उनके द्वारा प्रतिपादित जीने की कला और संदेश नितान्त प्रासंगिक है।

जीवन के अंत में श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन झारखंड स्थित सुप्रसिद्ध शाश्वत जैन तीर्थ श्री सम्मेद शिखर के स्वर्णभद्रकूट नामक पर्वत से निर्वाण प्राप्त किया। इन्हीं की स्मृति में इस तीर्थ क्षेत्र के समीपस्थ स्टेशन का नाम पारसनाथ प्रसिद्ध है। सम्पूर्ण देश के लाखों जैन धर्मानुयायी इस तीर्थ के दर्शन-पूजन हेतु निरंतर आते रहते हैं।

अब 8 वे तीर्थंकर भगवान चंद्र प्रभु (चंद्रप्रभ असली नाम) के बारे में जानने की कोशिश करते है। जो 23 वे तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ से लाखों साल पहले हुए।आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभ का जन्म भी पौष कृष्ण एकादशी को ही राजघराने में हुआ था। इनके माता पिता बनने का सौभाग्य चंद्रावती के महाराजा महासेन और लक्ष्मणा देवी को मिला। भगवान चन्द्रप्रभु के जन्म, तप एवं ज्ञान कल्याणक स्थली क्षेत्र काशी या बनारस या वाराणसी सुरम्य गंगातट पर चन्द्रावती गढ़ के भग्नावशेषों के बीच स्थित है। क्षेत्र पर चैत्र कृष्णा 5 को वार्षिक मेला लगता है। गंगा किनारे चंद्रावती में आठवें तीर्थंकर चंद्राप्रभु स्वामी ने जन्म लिया था। वहां चंद्राप्रभु का भव्य मंदिर आस्था का केंद्र है लेकिन गंगा की कटान की वजह से यह तीर्थ बदहाल पड़ा है। मंदिर का जीर्णोद्धार बहुत ही धीमी गति से हो रहा है। वर्तमान मंदिर की वेदी में मूलनायक तीर्थंकर चंद्रप्रभ की श्वेत पाषाण की पद्मासन प्रतिमा है। मंदिर का शिखर बहुत ही सुंदर बना हुआ है। यहां से गंगा का मनोहारी दृश्य बहुत ही आकर्षक लगता है जो अवलोकनीय है। गंगा नदी के तट पर बना हुआ जिनालय स्थापत्य कला को सुशोभित कर रहा है । मंदिर का निर्माण प्रभुदास जैन ने किया था। इनके परिवारजन श्री अजय जैन, प्रशांत जैन आरा आदि आज भी इस क्षेत्र की देख-रेख में संलग्न हैं। चंद्रावती तीर्थ में फरवरी 2022 में आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी के सान्निध्य में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव भी हो चुका है।

जैन तीर्थंकरों के दर्शन के लिए वर्ष भर देश के कोने-कोने से लाखों की तादाद में जैन धर्मावलंबी काशी आते हैं।

भगवान चंद्रप्रभ हमारे जीवन दर्शन के स्रोत हैं, प्रेरक आदर्श हैं। उन्होंने जैसा जीवन जीया, उसका हर अनुभव हमारे लिए साधना का प्रयोग बन गया।

भगवान चंद्रप्रभ को इतिहास का स्वरूप धारण कराने में आचार्य समन्तभद्र स्वामी का बड़ा हाथ है। जब उन्हें भस्मक व्याधि हो गयी थी उस समय काशी में उनके साथ जो घटनाक्रम हुआ वह ऐतिहासिक था। इस ऐतिहासिक घटना ने जनमानस पर गहरा प्रभाव छोड़ा और कलाकार चंद्रप्रभु की कलाकृतियां गढ़ने में तत्पर हो गए और श्रावक जन भगवान चंद्रप्रभु के चमत्कार के प्रति अधिक आस्थावान और विश्वस्त हो गए। चंद्रावती के अलावा देवगढ़ , खजुराहो, सोनागिर, फिरोजाबाद, तिजारा, ग्वालियर, श्रवणबेलगोला , बरनावा, मांगीतुंगी आदि में चंद्रप्रभु भगवान की प्राचीन व चमत्कारी प्रतिमाएं विराजमान हैं।

तीर्थंकर चंद्रप्रभु अपनी अद्वितीय धवल रूप गरिमा में वीतरागता का वैभव बिखेरने के साथ अपने अद्वितीय अतिशय और चमत्कारों के कारण भी लोकप्रिय संकट मोचन रहे हैं। तीर्थंकर चन्द्रप्रभु का आदर्श मानव को सावधान करता है, उसे जगाता है और कहता है कि हमारी तरफ देख, हमने राजा का वैभव को ठुकराया और आकिंचन व्रत अंगीकार किया और तू इस नाशवान माया की ममता में पागल हुए जा रहा है।

वाराणसी देश के प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी का संसदीय क्षेत्र है।वो यहां से फिर से जीत के आ चुके है।कुछ साल पहले उन्होंने काशी विश्वनाथ कॉरिडॉर देश को समर्पित कर ऐतिहासिक कार्य किया है। वाराणसी में ही राजघराने में जन्में तीर्थंकर चंद्रप्रभु एवं पार्श्वनाथ भगवान के जन्मकल्याणक दिवस पर माननीय प्रधानमंत्री से निवेदन है कि काशी के चार तीर्थंकरों की जन्मभूमि के विकास , संरक्षण और संवर्द्धन की ओर भी अपना ध्यान आकृष्ट करने का कष्ट करें। चंद्रप्रभु भगवान की जन्म भूमि पर गंगा घाट के तट पर चंद्रावती में जो मंदिर बना है उस पर तो तुरंत ध्यान देने की जरूरत है , इस समय जीर्णोद्धार बहुत जरूरी है। आशा है प्रधानमंत्री इस ओर जरूर ध्यान देंगे ताकि संस्कृति की यह महान धरोहर संरक्षित और सुरक्षित हो सके। कुछ समय पहले हमारे प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथजी ने जैन धर्म के जन्मस्थली को विकसित करने का अपने भाषण में भी बोल चुके है। पर अभी तक किसी का ध्यान इस ओर नहीं है।

श्री चंद्रप्रभ विधेयं, स्मर्ता सद्य फलप्रदाः।

भवाब्धि व्याधि विध्वंस, दायिनी मेव राक्षदा।।

स्रोत- जैन गजट, 16 दिसंबर, 2024 पर:- https://jaingazette.com/jeev-jagat-ko-de-rhe-samta/

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